निवेशकों के लिए अवसर

छोटे निवेशकों में अनि​श्चितता बनी हुई है

छोटे निवेशकों में अनि​श्चितता बनी हुई है
एक कर्मचारी छह किलो सोने के मुकुट पर काम करते हुए । फोटो साभार : धीरज सिंह

आलोक पुराणिक का लेख : शेयर बाजार की छलांगों के मायने

इस तरह के पूंजी-प्रवाह में स्टाक बाजारों द्वारा मुहैया करवाए जाने वाली तरलता का महत्वपूर्ण योगदान है, इसलिए स्टाक बाजारों को सट्टे का अड्डा बताना उपयुक्त नहीं है। यह अलग बात है कि सट्टा हर उस तत्व से जुड़ सकता है, जिसके भावों को लेकर भविष्य में अनिश्चितता हो। शेयर के भावों पर तमाम तरह के कारकों का असर होता है, ये कारक अनिश्चित होते हैं।

कोविड-19 महामारी की चुनौतियों से अर्थव्यवस्था जूझ रही है और कर संग्रह से लेकर तमाम आंकड़ों में आर्थिक सुस्ती के लक्षण हैं। ऐसी सूरत में भी शेयर बाजार नई छलांग लगा रहे हैं। क्या बाजार का वास्तविक अर्थव्यवस्था से कोई संबंध नहीं रह गया है, यह प्रश्न प्रासंगिक हो उठता है।

शेयर बाजारों काे कई बार सट्टेबाजी का अड्डा बताया जाता है। भारतीय शेयर बाजार भी अपवाद नहीं हैं। सट्टेबाजी से आशय ऐसी गतिविधि से है, जिसमें भागीदार पक्षकारों की मंशा संबंधित वस्तु की कीमतों में उतार-चढाव के अंतर से लाभ कमाने की होती है। सट्टेबाजी का आम तौर पर औद्योगिक विकास, औद्योगिक वित्त से कोई रिश्ता नहीं होता। औद्योगिक वित्त से जुड़ी गतिविधियों का रिश्ता ऐसी गतिविधियों से होता है, जिनमें किसी कारोबार, किसी उद्यम के लिए वित्त का इंतजाम किया जाता है, यह इंतजाम प्रतिभूतियों के जरिए जैसे शेयर-अंश या डिबेंचर-ऋणपत्रों के जरिए हो सकता है। शेयर-अंश से शेयरधारी को एक तरह से मिल्कियत हासिल हो जाती है, वह संबंधित कारोबार, संबंधित उद्यम का छोटा ही सही मालिक बन जाता है। शेयर बाजार की भूमिका यही है कि वह कंपनियों द्वारा जारी अंशों-ऋणपत्रों की खरीद-बिक्री के लिए बाजार मुहैया करवाए। छोटे निवेशक कंपनियों को पूंजी प्रदान करें और इस पूंजी-अंश या ऋणपत्रों की खरीद-फरोख्त लगातार हो सके, तरलता बनी रहे, इसलिए स्टाक बाजारों का सुचारु कारोबार चलना चाहिए। नई प्रतिभूतियों के बाजार को प्राथमिक बाजार कहते हैं और शेयर बाजारों को द्वितीयक कहा जाता है।

शेयर बाजारों को सट्टेबाजी का अड्डा इसलिए कहा जाता है कि किसी भी शेयर के भावों में बहुत तेज गति से उतार या चढ़ाव हो सकता है। शेयरों के उतार चढ़ाव में समस्या नहीं है, समस्या तब है जब शेयर बाजार में ऐसे कारोबारी आ जाते हैं, जो अपनी धनशक्ति की बदौलत बाजार में अकूत खरीदारी करके किसी शेयर को बहुत ऊंचे स्तर तक ले जाने की क्षमता रखते हैं और बाजार को असंतुलित कर देते हैं। नब्बे के दशक में भारतीय शेयर बाजार ने हर्षद मेहता नामक ऐसा कारोबारी देखा था, जिसके कारोबार की वजह से शेयर बाजार छोटे निवेशकों में अनि​श्चितता बनी हुई है बहुत असंतुलित हुआ था।

शेयर बाजार का मूल उद्देश्य कंपनियों की प्रतिभूतियों के लिए स्वस्थ बाजार मुहैया कराना है। भारत में दो स्टाक बाजार ही मुख्य हैं-मुंबई स्टाक एक्सचेंज और नेशनल स्टाक एक्सचेंज। मुंबई स्टाक एक्सचेंज की जड़ें जुलाई 1875 तक जाती हैं, यह एशिया का पहला स्टाक एक्सचेंज है। दूसरे एक्सचेंज नेशनल स्टाक एक्सचेंज ने 1994 से काम शुरु किया। नेशनल स्टाक एक्सचेंज के अस्तित्व में आने से पहले मुंबई स्टाक बाजार में कारोबार के तरीके प्राचीनकालीन थे। सेबी के शक्ति-संपन्न होने से पहले मुंबई स्टाक बाजार में मुंबई स्टाक एक्सचेंज पर कई बार पहले इस तरह के आरोप लगते रहे कि उसके कारोबार के तौर-तरीके पारदर्शी और निवेशक-मित्र नहीं हैं।

इतिहास देखें, तो साफ होता है कि राष्ट्रीय योजना समिति की औद्योगिक वित्त पर जो रिपोर्ट 1948 में प्रस्तुत की गई थी, उसमें भारतीय स्टाक बाजारों को जुए का अड्डा बताया गया था। इस राष्ट्रीय योजना समिति में लाला श्रीराम, जेआरडी टाटा जैसे उस समय के महत्वपूर्ण उद्योगपति शामिल थे।

स्टाक बाजारों के नियमन का इतिहास का अध्ययन करें तो साफ होता है कि सेबी यानी सिक्योरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड आफ इंडिया के गठन के बाद भारतीय पूंजी बाजार के तमाम संस्थानों के क्रिया-कलाप में गुणात्मक परिवर्तन आया है। सेबी की स्थापना 12 अप्रैल 1988 को एक गैर-वैधानिक संगठन के तौर पर की गई थी। सेबी को अधिनियम 1992 ने महत्वपूर्ण अधिकार और शक्तियां प्रदान कीं। ऐसा नहीं है कि सेबी के गठन के बाद स्टाक बाजारों के कारोबार को लेकर प्रश्न नहीं खड़े हुए, पर सेबी के गठन के बाद भारतीय पूंजी बाजार में ऐसा नियामक संगठन मौजूद था, जिसका समग्र ध्यान स्टाक बाजारों के कामकाज पर रहा है। नई प्रतिभूतियों का बाजार और स्टाक बाजार यानी प्रतिभूतियों के प्राथमिक और द्वितीयक बाजार दोनों क्षेत्र ही सेबी के अधिकार क्षेत्र के दायरे में आते हैं।

आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 खंड दो के अनुसार- 2019-20 में दिसंबर 2019 तक कंपनियों ने सार्वजनिक निर्गम, अधिकार निर्गम के जरिए 73,896 करोड़ रुपये की राशि निवेशकों से ली थी। यह रकम 2018-19 की समान अवधि की रकम के मुकाबले करीब 67 प्रतिशत ज्यादा थी। यानी हाल के समय में कंपनियों ने पूंजी बाजार से महत्वपूर्ण परिमाण में पूंजी हासिल करके अपने कारोबार में लगाई है। कोविड-19 महामारी के बाद सेबी ने पूंजी बाजार से पैसा उठाने के नियमों को उदार किया है, ताकि सुस्ती की स्थिति में कंपनियों के पास पूंजी का अभाव न रहे। इस तरह से सेबी ने खुद को एक गतिशील नियामक संस्थान के तौर पर प्रस्तुत किया है।

इस तरह के पूंजी-प्रवाह में स्टाक बाजारों द्वारा मुहैया करवाए जाने वाली तरलता का महत्वपूर्ण योगदान है। इसलिए स्टाक बाजारों को सट्टे का अड्डा बताना उपयुक्त नहीं है। यह अलग बात है कि सट्टा हर उस तत्व से जुड़ सकता है, जिसके भावों को लेकर भविष्य में अनिश्चितता हो। शेयर के भावों पर तमाम तरह के कारकों का असर होता है, ये कारक अनिश्चित होते हैं। अनिश्चितता के माहौल में अपने हिसाब से कारोबारी विश्लेषण कर सकते हैं। सेबी का जिम्मा यह है कि वह देखे कि बाजार में अस्वस्थ प्रवृत्तियां तो सिर नहीं उठा रही हैं, बाजार पर सिर्फ सट्टा कारोबारियों ने तो ही कब्जा नहीं कर लिया है। इसलिए निवेशक-शिक्षण भी छोटे निवेशकों में अनि​श्चितता बनी हुई है जरुरी है। सेबी और सरकार से जुड़े कई संस्थान इस निवेशक शिक्षण के काम में लगे हुए हैं। मोटे तौर पर माना जा सकता है कि भारतीय पूंजी बाजार में तीन करोड़ निवेशक हैं। 130 करोड़ जनसंख्या वाले देश में तीन करोड़ निवेशकों का आंकड़ा यह इंगित करता है कि अभी पूंजी बाजार में निवेशकों की भागीदार बढ़ाने की बहुत संभावना है। इस संभावना का एक प्रतिफलन तमाम कारोबारों की पूंजी की उपलब्धता की शक्ल में होगा।

बड़े वेतन वाली नौकरियों का लिए करना होगा इंतजार

भारतीय अर्थव्यवस्था लॉकडाउन में ढील के बाद धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही है। इससे नौकरियों के अवसर बढ़े हैं लेकिन अभी भी बड़े वेतन वाली नौकरियों (व्हाइट कॉलर जॉब) के लिए पेशवरों को इंतजार करना पड़ रहा.

बड़े वेतन वाली नौकरियों का लिए करना होगा इंतजार

भारतीय अर्थव्यवस्था लॉकडाउन में ढील के बाद धीरे - धीरे पटरी पर लौट रही है। इससे नौकरियों के अवसर बढ़े हैं लेकिन अभी भी बड़े वेतन वाली नौकरियों ( व्हाइट कॉलर जॉब ) के लिए पेशवरों को इंतजार करना पड़ रहा है।

कर्मचारी भविष्य निधि संगठन ( ईपीएफओ ) के पेरोल डाटा के अनुसार , अप्रैल से जून तिमाही के दौरान असंगठित क्षेत्रों में 08 लाख नई नौकरियां निकलीं जिसमें से पांच लाख सिर्फ जून महीने में आईं। यह उछाल एक्सपोर्ट हाउस , प्राइवेट गार्ड , इंफ्रा क्षेत्र से जुड़े छोटे ठेकेदार और छोटी कंपनियों में नई नियुक्तियां निकलने से हुईं। डाटा के अनुसार , ये सभी नौकरियां कम वेतन वाली थी। वहीं , अभी भी विनिर्माण क्षेत्र , वित्तीय प्रतिष्ठान और कोर इंजीनियरिंग क्षेत्र में बड़े वेतन की नौकरियां नहीं निकल रहीं हैं। रिपोर्ट के अनुसार , वहीं , दूसरी ओर इस दौरान वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों में 9000, इंजीनियरिंग में 16,000 और वित्तीय सेक्टर में मात्र 649 नई नियुक्तियां हुईं। विशेषज्ञों के अनुसार , लॉकडाउन में ढील के बावजूद अभी भी सभी सेक्टर में रिकवरी आनी बाकी है। इसमें एमएसएमई ( सूक्ष्म , लघु और मध्यम उद्योग ) सेक्टर प्रमुख तौर पर हैं। देशभर में करीब छह करोड़ एमएसएमई कोरोना संकट से प्रभावित हैं। इसमें देशभर के करीब 11 करोड़ कामगार काम करते हैं। लॉकडाउन में ढील के बावजूद अधिकांश एमएसएमई अभी भी 50 फीसदी क्षमता पर ही काम कर रहे हैं।

मांग और आपूर्ति में अंतर बड़ी बाधा

अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों का कहना है कि बाजार में मांग और आपूर्ति में बड़ा अंतर होने से बड़े वेतन वाली नौकरियां सृजित नहीं हो रही हैं। इसके चलते लोग कम वेतन पर काम करने को मजबूर है। मैन्युफैक्चिरंग और फाइनेंस सेक्टर में बड़े पैमाने पर भर्तियां होती हैं लेकिन बाजार में मांग नहीं होने से इस सेक्टर में सुस्ती है। इन क्षेत्रों को पटरी पर आने में अभी वक्त लगेगा। इसलिए पढ़े - लिख पेशवरों को बड़े वेतन की नौकरी नहीं मिल रही है। अभी अधिकांश कंपनियां नई नियक्ति नहीं कर छोड़ गए या छंटनी किए गए पद को ही भड़ रही हैं।

युवा बेरोजगारी दर 32.5% पर पहुंचने की आशंका

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ( आईएलओ ) ने यह अनुमान लगाया है कि अगर भारत सितंबर के अंत तक कोरोना महामारी पर काबू पाने में नकामयाब रहता है तो देश में युवा बेरोजगारी की दर बढ़कर 32.5 फीसदी पहुंच जाएगी। रिपोर्ट के अनुसार , भारत में 61 लाख युवा कोरोना महामारी के कारण नौकरी गवां सकते हैं। यह एशिया और प्रशांत क्षेत्र में नौकरी खोने वालों का 40 फीसदी होगा। भारत के बाद पाकिस्तान में नौकरी खोने वाले युवाओं की संख्या सबसे अधिक होगी।

ई - कॉमर्स ने थोड़ा सहारा दिया

कोरोना महामारी की चपेट में आने से तमाम सेक्टर में छंटनी हुई लेकिन इस दौरान ई - कॉमर्स ने बड़ा सहारा देने का काम किया है। सोशल डिस्टेंसिंग के चलते ऑनलाइन खरीदारी तेजी से बढ़ी है। बढ़ी मांग को पूरा करने के लिए ई - कॉमर्स कंपनियां बड़े पैमाने पर नई नियुक्तियां कर रही हैं लेकिन इसमें बड़े वेतन वाले जॉब नहीं है। अधिकांश कम वेतन वाली नौकरियां है।

विनिर्माण क्षेत्र में सुस्ती कायम

मांग कमजोर बने रहने से देश में जुलाई के दौरान विनिर्माण गतिविधियों में संकुचन कुछ और बढ़ा है। भारत विनिर्माण खरीद प्रबंधकों का सूचकांक ( पीएमआई ) जुलाई में 46 अंक पर रहा। एक माह पहले जून में यह 47.2 पर था। भारतीय विनिर्माण क्षेत्र के मामले में यह लगातार चौथा माह रहा है जब इसमें कमी दर्ज की गई। कई राज्यों में लॉकडाउन बढ़ने से कुछ व्यवसाय अभी भी बंद पड़े हैं। निर्यात आर्डर में भी गिरावट देखी गई है। अंतरराष्ट्रीय खरीदार आर्डर देने में हिचकिचा रहे हैं क्योंकि छोटे निवेशकों में अनि​श्चितता बनी हुई है महामारी को लेकर अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है। इस कारण बड़ी कंपनियों में रोजगार के अवसर अभी भी नहीं निकल रहे हैं।

यथास्थिति नहीं चलेगी

दो मार्च 2020 को स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन ने संसद को बताया था कि भारत कोरोना विषाणु के खतरे से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार था। मंत्री ने कहा था- 'मुझे नहीं लगता कि लोगों को घबराने और डर के कारण हमेशा हर जगह और कोने में मास्क पहनने की जरूरत है।

पी. चिदंबरम: दो मार्च 2020 को स्वास्थ्य मंत्री डा. हर्षवर्धन ने संसद को बताया था कि भारत कोरोना विषाणु के खतरे से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार था। मंत्री ने कहा था- 'मुझे नहीं लगता कि लोगों को घबराने और डर के कारण हमेशा हर जगह और कोने में मास्क पहनने की जरूरत है। यह पूरी तरह से उन पर है कि वे मास्क पहनना चाहते हैं या नहीं।'

और मौके का इंतजार कर रहे डा. नीतिन ने ट्वीट किया- 'एक डाक्टर होने के नाते मुझे इस बात पर गर्व है कि मैंने खुद स्थिति संभाली और इसे देखा'। आगे उन्होंने लिखा- 'एक चिकित्सक के नाते मैं खुद अपने पर और उस चिकित्सा व्यवस्था जिसमें कि मैं भी शामिल हूं, पर भरोसा करता हूं कि हम दोनों मिल कर भारत में कोरोना विषाणु को आसानी से खत्म कर देंगे।'

24 मार्च 2020 को देर शाम पूरे देशव्यापी पूर्णबंदी लगा दी गई थी। सात जुलाई 2021 को जब महामारी की दूसरी लहर चरम पर थी, डा. हर्षवर्धन से इस्तीफा देने को कह दिया गया!

डॉ. वर्धन और डॉ. नीतिन की याद मुझे तब आई जब मैंने वित्त मंत्रालय और भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआइ) की फरवरी 2022 की रिपोर्ट पढ़ी। मंत्रालय एक कार्यकारी प्राधिकार है जो देश की अर्थव्यवस्था और वित्तीय प्रबंधन के लिए जिम्मेदार होता है, इसलिए रिपोर्ट में अपनी प्रशंसा को कोई भी समझ सकता है।

हालांकि आरबीआइ देश का मौद्रिक प्राधिकार होता है और अर्थव्यवस्था के प्रबंधन को लेकर उससे खुल कर बोलने की उम्मीद की जाती है, यहां तक कि आलोचना की भी। दोनों रिपोर्टों को पढ़ने के बाद और यह मान लेने कि दोनों के तथ्य और आंकड़े साझे ही होंगे, मैं हैरानी में पढ़ गया कि क्या दोनों रिपोर्टें एक ही व्यक्ति ने लिख दी हैं!

अर्थव्यवस्था पर आरबीआइ की रिपोर्ट इस निराशाजनक टिप्पणी के साथ शुरू होती है- 'वैश्विक अर्थव्यवस्था का परिदृश्य नकारात्मक पहलू वाले जोखिमों से घिर गया है। सभी गतिविधियों पर ओमीक्रान भारी पड़ता जा रहा है… मुद्रास्फीति के बढ़ते स्तर के खतरे को लेकर सतर्क हो रहे केंद्रीय बैंकों की संख्या बढ़ती जा रही है और उभरते बाजार वाली छोटे निवेशकों में अनि​श्चितता बनी हुई है अर्थव्यवस्था वाले देशों में मौद्रिक नीति को सख्त किया जा रहा है और वैश्विक सुधार की रफ्तार जोखिम भरी है।'

रिपोर्ट का समापन भी निराशाजनक नोट से होता है- 'वस्तुओं के दामों में तेज वृद्धि और आपूर्ति शृंखला अवरोध के कारण सारी अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति की समस्या खड़ी हो गई है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के वृहद पहलुओं को देखें, तो उनकी स्थिति अभी भी खतरे से बाहर नहीं आ पाई है और भारी अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है जिसमें नकारात्मक पहलुओं का जोखिम है… बढ़ते जोखिम की वजह से निवेशकों की धारणा कमजोर पड़ गई है, जिससे पूंजी प्रवाह गड़बड़ा सकता है और जो थोड़ा सुधार शुरू होने लगा था, उसमें बाधा आ सकती है।'

शुरू से लेकर आखिर तक आरबीआइ की रिपोर्ट सरकार की रिपोर्ट से कहीं अलग नहीं है। वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट समझ में आने लायक ढंग से आशावादी और खुद की तारीफ वाली है, लेकिन एक चेतावनी भी है- 'हाल के भूराजनीतिक घटनाक्रमों ने नए वित्त वर्ष के लिए आर्थिक वृद्धि और मुद्रास्फीति के परिदृश्य को लेकर अनिश्चितता भी पैदा कर दी है।'

1- हर क्षेत्र और हर बड़ी अर्थव्यवस्था के संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने जीडीपी वृद्धि के अनुमान 1.5 फीसद तक घटा दिए हैं। अमेरिका की वृद्धि दर दो फीसद और चीन की 3.2 फीसद तक कम कर दी गई है। यह मानना मुश्किल है कि 2022-23 में भारत की वृद्धि दर में सिर्फ 0.5 फीसद की कमी आएगी और यह नौ फीसद पर बनी रहेगी।

2- ज्यादातर विकसित अर्थव्यवस्थाओं और कई उभरते बाजारों वाली अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति काफी बढ़ गई है। सोने, खाद्य वस्तुओं के दाम बढ़ रहे हैं। भारत में फरवरी में थोक मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई 13.1 फीसद रही और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित महंगाई 6.1 फीसद। खाद्य मुद्रास्फीति बढ़ कर 5.9 फीसद पर पहुंच गई है, विनिर्माण मुद्रास्फीति 9.8 फीसद है और र्इंधन और बिजली मुद्रास्फीति अभी भी 8.7 फीसद के उच्चस्तर पर बनी हुई है।

3- निवेशकों की धारणा बुरी तरह हिली हुई है। शेयर बाजार नीचे आ गए हैं, बांड मूल्य और मजबूत हो गए हैं और केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ा दी हैं या बढ़ाने की चेतावनी दे दी है।

4- रोजगार के मोर्चे पर, भारत में श्रम भागादारी दर नीचे आ गई है और काम में लगे लोगों की संख्या भी कम हुई है।

5- खर्च के मोर्चे पर बात करें तो सरकार पूंजीगत खर्च के भरोसे है (सरकार का तर्क है कि इससे निजी निवेश बढ़ेगा, जो कि बहस का विषय है)। सरकार के पूंजीगत खर्च का अनुमान संदिग्ध है और यह दोहरी गणना हो सकती है। पूंजीगत खर्च के लिए पैसा व्यापक रूप से बाजार उधारी से जुटाया जाता है।

क्या कल्याणवाद विकास है?

हालात से निपटने के लिए दक्ष प्रबंधन की दरकार है। उच्च आवृत्ति वाले संकेतक मध्य वर्ग और अमीरों की आर्थिक हालत बयां करते हैं। गरीब तबका महंगाई और बेरोजगारी की मार से त्रस्त है। सरकार रोजगार के जिन आंकड़ों का ढोल पीट रही है, वे सवालों के घेरे में है और ये वे रोजगार हैं जिनके लिए बेहद गरीब, अशिक्षित और अप्रशिक्षित लोग आवेदन नहीं कर सकते।

उन्हें खेतों, निचले स्तर की सेवाओं और छोटे कारोबारों में काम की जरूरत है, जिनका मिल पाना मुश्किल है। वर्तमान में वे कल्याणवाद से संतुष्ट नजर आते हैं जो उनकी मुश्किलों को तो कम करेगा, लेकिन 'विकास' नहीं लाएगा, और लाया भी तो बेहद थोड़ा।

सर्वे दर सर्वे बताते हैं कि हाल में पांच राज्यों में संपन्न हुए चुनावों में ऐसे मतदाताओं की तादाद काफी ज्यादा थी जो विकास चाहते हैं, पर यथास्थिति के लिए वोट दिया। कल्याणवाद उपयोगी है, लेकिन वास्तविक और टिकाऊ विकास का विकल्प नहीं है।

वास्तविक और टिकाऊ विकास सिर्फ मुश्किलों, क्रांतिकारी सुधारों, सरकार के न्यून नियंत्रण, प्रतिस्पर्धा बढ़ाने, आजादी, भय और धमकी मुक्त माहौल, मतभेदों को बर्दाश्त करने और सच्चे संघवाद से आएगा।

पांच में से कम से कम चार राज्यों में लोगों ने बदलाव के बजाय यथास्थिति के लिए वोट दिया लगता है। समझौते में, क्या उन्होंने वास्तविक और टिकाऊ विकास के खिलाफ वोट दिया, सिर्फ वक्त ही बताएगा।

सर्राफा बाजार : सहालग की खरीदारी से सोने में तेजी बरकरार, चांदी फिसली

नई दिल्ली, 16 नवंबर (हि.स.)। शादी के सीजन के लिए हो रही खरीदारी के सपोर्ट की वजह से भारतीय सर्राफा बाजार में सोने में आज एक बार फिर तेजी का माहौल बना रहा। हालांकि, सोना के विपरीत चांदी में आज गिरावट का रुख नजर आया। बाजार में जेवराती सोने की मांग में आई तेजी की वजह से आज सोने की कीमत में अलग-अलग श्रेणियों में 129 रुपये प्रति 10 ग्राम से लेकर 75 रुपये तक की तेजी दर्ज की गई। सोना के विपरीत सर्राफा बाजार में आज चांदी की कीमत में गिरावट का रुख बना रहा। आज के कारोबार में चमकीली धातु प्रति किलोग्राम 486 रुपये टूट गई।

इंडियन बुलियन एंड ज्वेलर्स एसोसिएशन (आईबीजेए) की ओर से उपलब्ध कराई गई जानकारी के मुताबिक घरेलू सर्राफा बाजार में आज कारोबारी यानी 24 कैरेट (999) सोने की औसत कीमत 129 रुपये की तेजी के साथ उछल कर 52,952 रुपये प्रति 10 ग्राम (अस्थाई) हो गई। इसी तरह 23 कैरेट (995) सोने की कीमत भी 129 रुपये की बढ़त के साथ 52,740 रुपये प्रति 10 ग्राम (अस्थाई) हो गई। जबकि जेवराती यानी 22 कैरेट (916) सोने की कीमत में आज 118 रुपये प्रति 10 ग्राम की मजबूती दर्ज की गई। इसके साथ ही 22 कैरेट सोना 48,504 रुपये प्रति 10 ग्राम (अस्थाई) के स्तर पर पहुंच गया। इसके अलावा 18 कैरेट (750) सोने की कीमत आज प्रति 10 ग्राम 97 रुपये चढ़ कर 39,714 रुपये प्रति 10 ग्राम (अस्थाई) के स्तर पर पहुंच गई। जबकि 14 कैरेट (585) सोना आज 75 रुपये मजबूत होकर 30,977 रुपये प्रति 10 ग्राम (अस्थाई) के स्तर पर पहुंच गया।

सर्राफा बाजार में सोने की कीमत में तेजी बनी, लेकिन चांदी आज गिरावट के साथ कारोबार करता रहा। आज के कारोबार में चांदी (999) की कीमत 486 रुपये प्रति किलोग्राम टूट गई। इस गिरावट के कारण ये चमकीली धातु आज लुढ़क कर 61,784 रुपये प्रति किलोग्राम (अस्थाई) के स्तर पर पहुंच गई।

आपको बता दें की शादी के सीजन के कारण भारतीय सर्राफा बाजार को नवंबर के महीने में काफी सहारा मिला है। नवंबर के महीने के दौरान सोने की कीमत में प्रति 10 ग्राम करीब 2500 रुपये की तेजी आ चुकी है। इसी तरह चांदी की कीमत में भी प्रति किलोग्राम करीब 4 हजार का उछाल आ चुका है। हालांकि, मार्केट एक्सपर्ट्स का मानना है कि घरेलू सर्राफा बाजार में अभी भी निवेश के अनुकूल माहौल नहीं बना है। अभी बाजार में जो भी खरीदारी हो रही है, वो सिर्फ शादी के सीजन के लिए की जाने वाली व्यक्तिगत खरीदारी ही है। बड़े निवेशक नकारात्मक वैश्विक माहौल की वजह से अभी भी बाजार से दूरी बनाए हुए हैं। इसलिए सर्राफा बाजार की चाल को लेकर अनिश्चितता वाली स्थिति बनी हुई है। जानकारों का कहना है कि जब तक वैश्विक माहौल में सुधार के लक्षण नजर नहीं आते, तब तक छोटे निवेशकों को अपनी निवेश योजना काफी सोच समझकर बनानी चाहिए।

लॉकर और घर में रखा सोना बेच डालिए, आपकी चांदी हो जाएगी

सोने की कीमतों का मुद्रास्फीति और बैंक ब्याज दरों से सीधा संबंध है. ऐसे समय में छोटे निवेशकों में अनि​श्चितता बनी हुई है जब मुद्रास्फीति की दर ब्याज दरों से ऊपर चली जाती हैं तो निवेशकों का ध्यान सोने पर जाता है जो उस समय बेहतर रिटर्न देता है.

एक कर्मचारी छह किलो सोने के मुकुट पर काम करते हुए । फोटो साभार : धीरज सिंह

इस समय सारी दुनिया कोरोनावायरस की चपेट में है और करोड़ों लोगों का रोजगार छिन गया है, आमदनी का कोई साधन नहीं दिख रहा है. ऐसे में ज्यादा लोन लेना भी खतरे से खाली नहीं है क्योंकि उसके ब्याज के भार से आने वाले समय में तमाम तरह की कठिनाइयां पैदा होंगी. लेकिन ऐसे में एक आसान तरीके से कमाई हो सकती है और वह है सोना बेचना.

आज भारत में लोगों के घरों में या लॉकरों में लगभग 25 हजार टन सोना निष्क्रिय पड़ा हुआ है. यह वह बहुमूल्य धातु है जिसका गहने बनाने के अलावा कोई खास उपयोग नहीं है लेकिन इसकी कीमतें हैं कि इस समय आसमान छू रही हैं. और इस कारण ही यह संकट मोचक बन गया है.

सोने की कीमतें ऐतिहासिक ऊंचाइयों पर हैं और यह कयास भी लगाए जाने लगे कि सोना इस बार दीवाली तक पौन लाख रुपए प्रति दस ग्राम पर चला जाएगा. हालांकि फिलहाल इसकी बढ़ती कीमतों में विराम लग गया है लेकिन गिरावट का कोई बड़ा रुख नहीं दिख रहा है. दो महीने पहले यह 55,000 रुपए प्रति दस ग्राम की सीमा रेखा को पार कर गया था लेकिन अभी यह 53 हजार के आसपास है. इसने अपनी एक पोजीशन बना ली है और अब अगले मौके का इसे इंतज़ार है. उसके बाद यह अपनी चमक फिर दिखा भी सकता है.

सोना क्यों इन ऊंचाइयों पर पहुंचा

सोने में तेजी ईरान-अमेरिका तनाव और उसके बाद अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध के कारण आई. जब भी दुनिया में अनिश्चितता की स्थिति आती है तो सोने की कीमतों में तेजी आती है. यह हजारों सालों से होता चला आ रहा है क्योंकि सोना अनिश्चितता के दिनों में भरोसे का साथी है. पिछले साल इसकी कीमतों में लगभग 20 प्रतिशत की तेजी आई थी तो इस साल इसमें 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी आ चुकी है और यह तेजी से हर दिन बढ़ता ही जा रहा है.

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विदेशी बाज़ारों में उसने 2000 डॉलर प्रति औंस की लक्ष्मण रेखा लांघ ली तो भारत के बाज़ारों में उसने 55 हजार रुपए प्रति दस ग्राम की सीमा पार कर ली. उसकी तेजी ने सभी विशेषज्ञों और कारोबारियों को हैरान कर दिया. इस तरह से यह सबसे ज्यादा रिटर्न देना वाला एसेट बन गया है. न तो रियल एस्टेट ने और न ही किसी और वित्तीय माध्यम (इंस्ट्रूंंमेंट) ने इतनी तेजी से इतना रिटर्न दिया न ही आने वाले समय में दे सकता है. और जब इतना रिटर्न मिल रहा हो तो फायदा क्यों नहीं उठाया जाए? जी हां, बेहतर है कि अपना जमा और एक सीमा से ज्यादा सोना बेच डालिए.

हर तरह के इमोशन से बाहर निकल कर सोना बेचने का यही सुनहरा मौका है. इतना प्रॉफिट मार्जिन कभी नहीं मिलेगा क्योंकि इस बात के पूरे आसार है कि सोना अगले साल अपनी यह चमक खोने लगेगा और इसके पीछे ठोस कारण हैं.

सोने की कीमतें कब गिरेंगी?

सोना अभी कुछ दिनों छोटे निवेशकों में अनि​श्चितता बनी हुई है तक और ऊपर जा सकता है क्योंकि इंटरनेशनल सटोरिये अभी भी इस पर ध्यान लगाए बैठे हैं. यहां यह बताना जरूरी है कि सोने के दाम भारत में मांग बढ़ने से नहीं बढ़ते बल्कि इंटरनेशनल प्लेयर ही इसे उठाते-चढ़ाते हैं. इस समय भी यही हालात हैं. अरबपति जॉर्ज सोरोस, वारेन बफे, जेफरी गनलाक, रे डेलियो, जॉन पॉलसन, पॉल ट्यूडर वगैरह सोने में पैसा लगातार लगा रहे थे जिससे इसकी तेजी को बल मिला. इसके पीछे इनका हाथ तो था ही लेकिन परिस्थितियां भी ऐसी बनीं कि सोना चढ़ता ही गया. आइए देखें कुछ कारणों को.

कोरानावायरस की चपेट में आकर सारी अर्थव्यवस्थाएं सिकुड़ती जा रही हैं. कई देश तो कंगाली के कगार पर खड़े हो गए हैं. ऐसे में सोना संकट से निबटने का सबसे बड़ा माध्यम दिख रहा है. दूसरा बड़ा कारण रहा है कि अमेरिका सहित विकसित देशों में बैंकों की ब्याज दरें शून्य हो गई हैं तथा सरकारी बांडों से रिटर्न गायब हो गया है. ऐसे में वहां के लोग बड़े पैमाने पर सोना खरीद रहे हैं और आगे चलकर मुनाफा कमाने की फिराक में हैं.

दो महीने पहले के एक सर्वे के मुताबिक 15 प्रतिशत अमेरिकी कुछ सोना खरीद चुके हैं और कुल 25 प्रतिशत खरीदने की तैयारी में है. यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि अमेरिका में भारत की तरह गहने पहनने रिवाज नहीं है. यहां स्वर्णाभूषण सदियों से महिलाओं की सुंदरता बढ़ाने का माध्यम रहे हैं. लेकिन वहां छोटे निवेशकों में अनि​श्चितता बनी हुई है सोना उनके लिए महज एक कमोडिटी है जो बेचने-खरीदने के काम आता है. ज़ाहिर है जब इतने बड़े पैमाने पर सोने की खरीद होगी तो इसकी कीमतें भी बढ़ेंगी.

सोने की कीमतों का मुद्रास्फीति और बैंक ब्याज दरों से सीधा संबंध है. ऐसे समय में जब मुद्रास्फीति की दर ब्याज दरों से ऊपर चली जाती हैं तो निवेशकों का ध्यान सोने पर जाता है जो उस समय बेहतर रिटर्न देता है. अमेरिकी केन्द्रीय बैंक ने 2019 में ही यह संकेत दे दिया था कि वह ब्याज दरें नहीं बढ़ाएगा तो यह तय हो गया था कि सोने के दाम बढ़ेंगे. इस समय जब सारी दुनिया के देश इस महामारी से लड़ने के लिए आर्थिक राहत पैकेज दे रहे हैं और मुद्रा की आपूर्ति बेहिसाब बढ़ गई है तो ज़ाहिर है कि मुद्रास्फीति बढ़ेगी और कई देशों में यह बढ़ भी रही है. ऐसे में सोना एक बेहतर विकल्प के रूप में दिख रहा है. ऐसे में बड़े सटोरिये अरबों डॉलर का सोना खरीद रहे हैं जिससे इसकी कीमतें अनाप-शनाप ढंग से बढ़ती जा रही हैं. लेकिन यह प्रवृति हमेशा नहीं बनी रहेगी. सटोरिये जब कुछ खरीदते हैं तो ज़ाहिर है मुनाफा कमाने के लिए ही खरीदते हैं और जब कीमतें उनके टारगेट पर आ जाती हैं तो वे बेचकर निकल जाते हैं.

एक और बड़ा कारण यह भी दिखता है कि विकसित देशों के बाज़ारों में शेयरों की कीमतें पिछले दिनों काफी बढ़ गई हैं और वे सामान्य से ज्यादा महंगे हो गए हैं. ऐसे में निवेशक वहां पैसा लगाने से झिझक रहे हैं. विश्व में अशांति के हालात में उनके लिए इस तरह का कदम उठाना जोखिम भरा है. इसलिए वे सोने की ओर खिंचे चले आ रहे हैं ताकि किसी तरह का जोखिम न हो. दूसरी ओर अमेरिकी मुद्रा डॉलर अन्य बड़ी मुद्राओं के मुकाबले कमज़ोर पड़ती जा रही थी जिससे वहां निवेशकों ने सोने में पैसा लगाया. लेकिन जैसे-जैसे डॉलर मजबूत होता जाएगा, सोना की कीमतें कुछ गिरेंगी. वैसे भारत में इसके विपरीत है क्योंकि हम यहां छोटे निवेशकों में अनि​श्चितता बनी हुई है लगभग सारा सोना आयात करते हैं.

सोने की कीमतें इन ऊंचाइयों पर रहने वाली नहीं हैं

लेकिन सच्चाई यह है कि सोने की कीमतें हमेशा इन्हीं ऊंचाइयों पर नहीं रहने वाली हैं. उतार-चढ़ाव एक आर्थिक प्रक्रिया है और इससे कोई भी नहीं बच पाता है. सोने को ही लीजिये 1970 में अमेरिकी आर्थिक संकट के दौरान इसकी कीमतें पांच गुनी बढ़ीं और कई वर्षों तक इसमें तेजी आती रही लेकिन उसके बाद यह लगभग अपने पुराने स्तर पर आ गया था. 2008 के विश्व आर्थिक संकट में यह तेजी से बढ़ा लेकिन 2011 आते-आते फिर ठंडा पड़ गया. और इसलिए यह तय है कि सोना भी गिरेगा लेकिन कब, यह कोई नहीं जानता है.

यह कहना कि कोराना वायरस के टीके के बाज़ार में आने के बाद इसकी कीमतों में गिरावट होगी, कुछ हद तक सही लगता है क्योंकि यह भी कच्चे तेल या अन्य धातुओं की तरह एक कमोडिटी है लेकिन इसका इस्तेमाल आम जिंदगी में बहुत ही सीमित है. टीके के आने से कोरानावायरस पर प्रभावी नियंत्रण होना शुरू हो जाएगा और आर्थिक गतिविधियां तेज हो जाएंगी. यह बात उस दिन देखने में आई जब रूस ने कोरोनावायरस के अपने टीके स्पुतनिक को बाज़ार में उतारने की घोषणा की और सोने के दाम 9 प्रतिशत तक गिर गए लेकिन उसके बाद यह फिर से बढ़ने लगा है. भारत में सोना और भी महंगा है क्योंकि यहां इस पर 13 प्रतिशत टैक्स है. और इसके बावजूद हमारा देश सोना आयात करने वाला दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है.

बहरहाल इस दीवाली सोना खरीदने की बजाय बेचने के बारे में सोचिए. फिर अगले साल जब इसकी कीमतें तेजी से घटने लगें तो फिऱ खरीद लीजिए. सोने को भी शेयरों की तरह खरीदने-बेचने की आदत डालिए. यकीन मानिए इसमें भी खासा मुनाफा है क्योंकि अगर आपने दो साल पहले भी सोना खरीदा होगा तो उसकी कीमत उस समय 31-32 हजार रुपए प्रति दस ग्राम से ज्यादा नहीं रही होगी. यानी हर दस ग्राम में बीस हजार रुपए से भी ज्यादा का फायदा.

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