एक मुद्रा कैरी ट्रेड की मूल बातें

क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है?

क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है?

आखिर कितना हरित है मेरा केंद्रीय बैंक?

यह दिलचस्प बात है क्योंकि केंद्रीय बैंक अक्सर अपना अधिकांश निवेश पोर्टफोलियो स्वर्ण, राष्ट्रीय और विदेशी नकदी तथा सॉवरिन बॉन्ड के रूप में रखते हैं। ऐसे में कोई व्यक्ति यह आकलन कैसे करेगा कि बॉन्ड और नकद परिसंपत्तियां कार्बन-न्यूट्रल हैं या नहीं? अजीब बात यह भी है कि सोने को कार्बन-न्यूट्रल आकलन से बाहर रखा गया है क्योंकि इसका आकलन करने का कोई तरीका मौजूद नहीं था। मैं यह कल्पना भी नहीं कर सकता कि सोने की खदान में होने वाला काम कार्बन-न्यूट्रल है, लेकिन फिलहाल इसे जाने दें।

इस विषय पर जो भी सामग्री उपलब्ध है वह सरकारी वित्त के बुनियादी सिद्धांत की अनदेखी करती है। सरकार का राजस्व सीधे व्यय से संबद्ध नहीं है। सरकार अपना कर राजस्व बढ़ाने के लिए व्यय नहीं करती। यह बात डेट के जरिये भरपाई किए जाने वाले सरकारी व्यय पर भी लागू होती है। यदि ऐसे डेट फाइनैंसिंग वाले व्यय का इस्तेमाल केवल पूंजीगत व्यय के लिए किया जाए तो भी पूंजीगत व्यय के पोर्टफोलियो का आकलन उसके कार्बन प्रभाव के आधार पर नहीं किया जा सकता है क्योंकि ऐसे निवेश का बड़ा हिस्सा वित्तीय निवेश होता है। ऐसा भी नहीं है कि वे राजस्व केवल इसलिए जुटाते हैं ताकि आम परिवारों की तरह वस्तुएं एवं सेवाएं जुटा सकें। इसके अलावा सरकारी व्यय का बड़ा हिस्सा स्थानांतरण में होता है जो अर्थव्यवस्था में संसाधनों का आवंटन एवं वितरण को प्रभावित करना चाहती है। इनकी भरपाई डेट या करों के माध्यम से होती है लेकिन यहां व्यय का प्रयोग उस संदर्भ में नहीं होता है जिस संदर्भ में कंपनियां और आम परिवार करते हैं।

यदि घरेलू कर्ज का इस्तेमाल उच्च कार्बन निवेश की भरपाई के लिए किया जाता है तो ऐसा कोई तरीका नहीं है जिससे कोई केंद्रीय बैंक ऐसे ऋण जारी करने से इनकार कर सके क्योंकि (अ) यह केंद्रीय बैंक के काम का हिस्सा नहीं है कि वह सरकार को बताए कि पैसा कैसे खर्च करना है, (ब) विशिष्ट सॉवरिन बॉन्ड को किसी विशिष्ट निवेश गतिविधि के लिए आवंटित नहीं किया जा सकता है क्योंकि इन्हें राजकोषीय घाटे की पूर्ति के लिए जारी किया जाता है और इसलिए ये अपनी प्रकृति में निरपेक्ष होते हैं। विदेशी ऋण के साथ संबद्धता की कमी और भी प्रखर है। इसके अलावा केंद्रीय बैंक विदेशी ऋण क्यों लेते हैं, इसका उन्हें जारी करने के उद्देश्य से कोई लेनादेना नहीं होता।

जब केंद्रीय बैंकों के पास कॉर्पोरेट फाइनैंशियल परिसंपत्तियां होती हैं तो जाहिर है हालात बिल्कुल अलग होते हैं। लेकिन तब यह सवाल पैदा होता है कि केंद्रीय बैंक कॉर्पोरेट परिसंपत्तियां रखते ही क्यों हैं? यह उन प्रोत्साहन पैकेज की विरासत है जो कई पश्चिमी केंद्रीय बैंकों ने संकट के समय अपने वित्तीय क्षेत्र को दिए। ऐसे अन्यायपूर्ण निवेश में कार्बन-न्यूट्रल का आकलन मामले को और जटिल क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? बना देता है।

ग्रीन क्लाइमेट तथा अन्य बॉन्ड तथा तयशुदा आय की परिसंपत्तियां कार्बन-न्यूट्रल की स्पष्ट और प्रत्याशित गारंटी की पेशकश करते हैं। जब तक ये सॉवरिन इश्यूएंस का हिस्सा हैं जब तक कुल उधारी में उनकी हिस्सेदारी को विश्वसनीय मानक के रूप में इस्तेमाल कर सकते हैं। यहां दो समस्याएं हैं। पहली यह कि ये सॉवरिन की विशिष्ट शक्ति को कम करके प्रतिमोच्य संसाधन (कर या ऋण) हासिल करती है। यह राज्य के मामलों के संचालन का एक अहम घटक है। कल्पना कीजिए कि युद्ध या महामारी के दौर में कार्बन-न्यूट्रल क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? होने की जरूरत फाइनैंसिंग को प्रभावित करती है। इसके बावजूद कुछ प्रगति की जा सकती है। इंडोनेशियन सुकुक इसका उदाहरण है। दूसरी बात यह कि हरित फाइनैंसिंग हरित खरीद या उपयोगिता की गारंटी नहीं देती जो कम से कम कार्बन-न्यूट्रल होती है। यदि एक ग्रीन बॉन्ड का इस्तेमाल किसी रेलवे परियोजना के वित्त पोषण के लिए किया जाता है लेकिन रेल निर्माण और संचालन में इस्तेमाल होने वाली बिजली और कार्बन खराब ढंग से बनते हैं और रेलवे का इस्तेमाल भी प्राथमिक तौर पर खनन वस्तुओं के उत्पादन के लिए होता है तो क्या उसे कार्बन-न्यूट्रल कहा जा सकता है? मुझे आशंका है कि केंद्रीय बैंक चूंकि आमतौर पर वित्तीय क्षेत्र के प्रोत्साहन को टालने में नाकाम साबित हुए हैं और उनका सामना इस हकीकत से हुआ है कि किसी तरह की स्वतंत्रता उन्हें अमेरिकी बाजार में नकदी बढ़ाने के प्रभाव या चीन के आसपास के क्षेत्रों में निवेश बढ़ाने के कदमों से सुरक्षित नहीं रख सकती। ऐसे में जलवायु परिवर्तन की समस्या एक ध्यान बंटाने वाली जनसंपर्क की कवायद बनकर रह गई जिसका इस्तेमाल इस हकीकत को छिपाने के लिए किया गया कि वे एक असमान और अनुचित वैश्विक वित्तीय व्यवस्था के अधीन होकर रह गए हैं।

इन तमाम बातों के बीच में हम केंद्रीय समस्या की अनदेखी कर गुजरते हैं। अनदेखी इस बात की कि कैसे दुनिया कार्बनीकृत हुई है और बहुत कम लोग बहुत अधिक वस्तुओं का उपभोग कर रहे हैं जबकि बहुत सारे लोगों के उपभोग के लिए कुछ खास नहीं है। यदि खपत के रुझान में अभिसरण नहीं होता है तो कार्बन के आवश्यकता से अधिक होने के कारण यह फैलेगा। जब तक अमीर और प्रभावशाली वर्ग द्वारा की जाने वाली खपत की बाह्य नकारात्मकताओं को चिह्नित करके उन्हें हतोत्साहित नहीं किया जाएगा और गरीब भौगोलिक क्षेत्रों में हरित निवेश की मदद से समृद्ध नहीं बनाया जाएगा तब तक जलवायु परिवर्तन के मुद्दे से प्रभावी ढंग से नहीं निबटा जा सकता।

विश्व आर्थिक मंच के संस्थापक क्लॉज श्वाब ने हाल ही में इस बारे में खुलकर बात की कि सन 2050 में जलवायु परिवर्तन उनके नाती-पोतों के समक्ष किस तरह का खतरा पैदा करेगा लेकिन मुंबई की झोपड़पट्टी में रहने वाले बच्चे तो अगले मॉनसून में ही डूबने लगेंगे, उन्हें 2050 में बढऩे वाले समुद्री स्तर का इंतजार नहीं करना होगा। इन बच्चों की समृद्धि बढ़ाने के क्रम में डॉॅ. श्वाब के पोतों का बलिदान भी बढ़ाना होगा तभी हमारे इस साझा ग्रह को स्थायित्व मिल सकेगा। खपत के रुझान में अभिसरण में यह बात शामिल होगी कि अमीरों की संतानें पर्यावरण को कम नुकसान पहुंचाएं जबकि गरीबों की संतानों को पर्याप्त अवसर मिले। अमीरों की असमान जीवनशैली की भरपाई के लिए केवल पुनर्चक्रण और पवन ऊर्जा का सहारा लेने से बात नहीं बनेगी।

(लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)

सॉवरेन हरित बॉन्ड से 16,000 करोड़ रुपये जुटा सकती है केन्द्र सरकार

मुंबई। केंद्र सरकार जल्द ही सॉवरेन हरित बॉन्ड जारी कर सकती है। वित्त क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? मंत्रालय ने वैश्विक मानक के हिसाब से इसकी रूपरेखा को अंतिम रूप दे दिया है। सूत्रों ने बुधवार को बताया, चालू वित्त वर्ष 2022-23 की दूसरी छमाही यानी अक्तूबर से मार्च के बीच ग्रीन बॉन्ड जारी करके 16,000 करोड़ रुपये जुटाया जा सकता है। यह दूसरी छमाही के लिए उधारी कार्यक्रम का एक हिस्सा है। इसकी घोषणा इस साल के बजट में की गई थी।

सूत्रों के मुताबिक, रूपरेखा तैयार है और इसे जल्द ही मंजूरी दी जाएगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस साल बजट भाषण में घोषणा की थी कि सरकार हरित इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए संसाधन जुटाने की खातिर सॉवरेन हरित बॉन्ड जारी करेगी। इस रकम को सार्वजनिक क्षेत्र की उन परियोजनाओं में लगाया जाएगा, जो अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को कम करने में मदद करती हैं।

इसके जरिए सरकार का मकसद विदेशी निवेशकों को लुभाने की है। अभी कई घरेलू और विदेशी निवेशक ऐसे हैं, जो बॉन्ड में पैसा लगाना चाहते हैं। ऐसे निवेशक खासतौर पर ग्रीन सिक्योरिटीज में पैसा लगाना चाहते हैं। सरकार की चालू वित्त वर्ष की अक्तूबर-मार्च अवधि के दौरान कुल 5.92 लाख करोड़ रुपये उधार लेने की योजना है।

2022-23 के बजट में सरकार ने 14.31 लाख करोड़ रुपये के सकल बाजार कर्ज का अनुमान लगाया था। इसमें से उन्होंने इस वित्त वर्ष के दौरान 14.21 लाख करोड़ रुपये उधार लेने का फैसला किया है, जो बजट अनुमान से 10,000 करोड़ रुपये कम है।

कॉरपोरेट बॉन्ड के प्राइवेट प्लेसमेंट को क्यों पसंद करती हैं कंपनियां, होनी चाहिए जांच: RBI डिप्टी गवर्नर

RBI के डिप्टी गवर्नर टी रबी शंकर (T Rabi Sankar) ने कहा कि इस बात की जांच करने की जरूरत है कि आखिर कंपनियां कॉरपोरेट बॉन्ड के पब्लिक इश्यू की जगह प्राइवेट प्लेसमेंट को क्यों पसंद करती हैं

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) के डिप्टी गवर्नर टी रबी शंकर (T Rabi Sankar) ने बुधवार 24 अगस्त को कहा कि इस बात की जांच करने की जरूरत है कि आखिर कंपनियां कॉरपोरेट बॉन्ड (Corporate Bonds) के पब्लिक इश्यू की जगह प्राइवेट प्लेसमेंट को क्यों पसंद करती हैं। बता दें कि बॉन्ड की ओपन मार्केट में बिक्री करने की जगह उसे पहले से चुने निवेशकों और संस्थानों को बेचना, प्राइवेट प्लेसमेंट कहलाता है।

टी रबी शंकर ने बॉम्बे चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री में दिए गए एक बयान में ये बातें कहीं। उन्होंने कहा, "प्राइवेट प्लेसमेंट को लेकर काफी ज्यादा तरजीह दी जा रही है।" उन्होंने कहा, "शायद इस बात को देखने का समय आ गया है कि आखिर क्यों बॉन्ड जारी करने वाले संस्था पब्लिक इश्यू की प्रक्रिया को अपनाने से परहेज कर रहे हैं।"

शंकर के मुताबिक, "हर साल कॉरपोरेट बॉन्ड का एक बड़ा हिस्सा प्राइवेट प्लेसमेंट के जरिए जारी हो रहा है, न कि पब्लिक इश्यू के जरिए।" उन्होंने बताया कि वित्त वर्ष 2022 में कॉरपोरेट बॉन्ड के पब्लिक इश्यू के जरिए सिर्फ 11,589 करोड़ रुपये जुटा गया था। यह प्राइवेट प्लेसमेंट के जरिए जुटाई राशि का सिर्फ 2 फीसदी है। वित्त वर्ष 2022 में बॉन्ड के प्राइवेट प्लेसमेंट के जरिए 5.88 लाख करोड़ रुपये जुटाए गए थे।

पेट्रोल-डीज़ल की बढ़ती कीमतें क्या सिर्फ़ यूपीए सरकार की देन?

मनमोहन सिंह, नरेंद्र मोदी

मंगलवार को भी पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों में 30 से 35 पैसे की वृद्धि हुई. देश की राजधानी दिल्ली में मंगलवार को पेट्रोल 98.81 रुपये और डीज़ल 89.18 रुपये प्रति लीटर बिका. वहीं मुंबई, बेंगलुरू, पटना, भोपाल में पेट्रोल की कीमत 100 रुपये से अधिक रही.

पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें अप्रैल के महीने में लगातार 18 दिनों तक नहीं बढ़ाई गई थीं. जानकार इसके पीछे पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुद्दुचेरी में विधानसभा चुनाव को वजह बताते हैं. चुनावों के नतीजे 2 मई को आने थे और एक बार फिर ये कीमतें पहली मई से बढ़नी शुरू हो गईं.

केवल मई के महीने में ही पेट्रोल-डीज़ल की कीमतें 16 बार बढ़ीं. मई से जून के दरम्यान पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों में 32 बार इज़ाफ़ा किया जा चुका है. बीते दो महीने के दौरान पेट्रोल और डीज़ल दोनों की कीमतों में अब तक क़रीब साढ़े आठ रुपये का इज़ाफ़ा किया जा चुका है.

उधार करके घी पियो!!

सभी संप्रभु देशों की सरकारें, देश के विकास के लिए धन जुटाने के लिए, कर या शुल्क लगाती हैं। इनके अलावा, वे ऋण के माध्यम से भी संसाधन जुटाती हैं। आपको जान कर हैरानी होगी कि यह ऋण इतना अधिक होता है कि वर्तमान में विश्व के सभी देशों की सरकारों का कुल ऋण विश्व की कुल सालाना आय का 77 प्रतिशत है। भारत सरकार का ऋण उसकी आय का 67 प्रतिशत है। कुछ देश ऐसे है जिनके लिए यह अनुपात 100 से अधिक है। यानि उनके ऋण का बोझ उनकी सालाना आय से भी अधिक है।

संप्रभु बॉन्ड क्या है?

सरकारें इस ऋण को बॉन्ड के माध्यम से लेती हैं। सोवरेन या संप्रभु बॉन्ड एक तरह का अनुबंध है जिसमें बॉन्ड खरीदने वालों को सरकार एक निश्चित ब्याज देने का वायदा करती है। संप्रभु बॉन्ड के खरीदार को सरकार से समय-समय पर ब्याज भुगतान प्राप्त होता है, और बॉन्ड की समयावधि पूरी होने के बाद या परिपक्व होने पर, बॉन्ड में लगाई गई राशि का भुगतान सरकार करती है।

संप्रभु बांड एक राष्ट्रीय सरकार द्वारा जारी किया गया बॉन्ड है जिससे प्राप्त धनराशि को सरकारी कार्यक्रमों को चलाने के लिए, पुराने ऋणों के भुगतान करने के लिए, वर्तमान ऋण पर ब्याज का भुगतान करने और किसी भी अन्य सरकारी खर्च की जरूरतों के लिए प्रयोग में लाया जाता है। यह याद रखना ज़रूरी है कि संप्रभु बॉन्ड द्वारा प्राप्त की गई राशि सरकार पर कर्ज़ है। बॉन्ड खरीदने वाले कभी भी बॉन्ड में लगाया गया पैसा वापिस मांग सकते हैं। आमतौर पर, जब कोई सरकार करों के माध्यम से पर्याप्त धन नहीं जुटा पाती है तो वह संप्रभु बांड जारी करती है।

संप्रभु बॉन्ड किस मुद्रा में जारी किए जाते हैं?

अमूमन ये बॉन्ड देश की मुद्रा में जारी किए जाते हैं। इन बॉन्ड की एक प्रमुख खरीदार विश्व वित्तीय कंपनियां होती हैं। इन विश्व वित्तीय कंपनियों को कम विकसित अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों पर और बढ़े हुए राजनीतिक जोखिम वाले देश की मुद्राओं पर का भरोसा नहीं होता है। इसलिए ऐसे देशों की सरकारें अपने संप्रभु बॉन्डों को अधिक स्थिर अर्थव्यवस्थाओं वाले देशों की मुद्राओं में भी निरूपित करते हैं।

किसी देश की आर्थिक स्थिति जितनी कमज़ोर होगी, उन देशों के बॉन्ड खरीदने में वित्तीय जोखिम उतना ही अधिक होगा। ऐसे देश अपने संप्रभु बांड को ख़रीदारों के लिए आकर्षक बनाने के लिए, निवेशकों को दिये जाने वाला ब्याज बढ़ा देते हैं।

कैसे पता चले कि किस देश के बॉन्ड खरीदने में फ़ायदा है या जोखिम है?

इस काम में बॉन्ड खरीदने वाले निवेशक की मदद करने के लिए कुछ संस्थाएं काम करती हैं जो रेटिंग एजेंसियों के नाम से जानी जाती हैं। विश्व की कुछ जानी मानी रेटिंग एजेंसियां हैं जैसे, स्टैंडर्ड एंड पूअर्स, मूडीज आदि। रेटिंग एजेंसियां किसी देश की आर्थिक रूपरेखा, उसकी मुद्रा विनिमय दर और राजनीतिक जोखिमों पर विचार कर उसके द्वारा अपने ऋण दायित्वों को पूरा करने की क्षमता का निर्धारण करती हैं। देश की आर्थिक व राजनैतिक स्थिति का मूल्यांकन करके ये रेटिंग एजेंसियां उस देश को सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग प्रदान करती हैं। इस रेटिंग से निवेशकों को एक विशिष्ट देश में निवेश करने में शामिल जोखिमों को समझने में मदद मिलती है।

उदाहरण के लिए वर्तमान में स्टैंडर्ड एंड पूअर्स ने भारत क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? को BBB रेटिंग, यानि कमजोर रेटिंग दे रखी है जबकि संयुक्त राज्य अमरीका की रेटिंग AA+, यानि सशक्त है। इससे निवेशकों को पता चलता है की हमारे देश में पैसे क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? लगाने में जोखिम है। इसलिए कम रेटिंग वाले देशों के लिए घरेलू मुद्रा में बांड जारी करने की क्षमता एक ऐसी विलासिता बन जाती है जिसका आनंद अधिकांश सरकारें नहीं उठा पाती हैं क्योंकि वित्तीय निवेशक उन्हें खरीदेंगे ही नहीं। ऐसे कम विकसित देशों को अधिक सशक्त अर्थव्यवस्था वाले देशों की मुद्रा में अपने संप्रभु बॉन्ड जारी करने पड़ते हैं और अपनी मुद्रा में इन्हे सॉवरेन बांड जारी करने में कठिनाई होती है।

इस प्रकार ऐसे देशों पर विदेशी मुद्रा में ऋण चढ़ जाता है। (आपको याद होगा कि लेख में पहले बताया गया है कि बॉन्ड के माध्यम से सरकार को जो पैसा मिला है उसे वापिस करना है, इसलिए यह सरकार पर ऋण होता है)

कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले देश विदेशी मुद्राओं में उधार लेने के लिए क्यों मजबूर है?

यह कई कारणों से होता है। सबसे पहले, निवेशक मानते हैं कि गरीब देशों की सरकारों में पारदर्शिता की कमी है और वे भ्रष्टाचारी हैं। जिससे, ऋण से प्राप्त राशि और सरकारी निवेश को वे अनुत्पादक क्षेत्रों में लगा देती हैं और ऋण को वापस देने की उनकी संभावना कम हो जाती है।

दूसरा, गरीब देश अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में निर्यात के बदले आयात अधिक करते हैं। जिससे उनकी मुद्रा कमजोर होती है। साथ ही वहाँ मुद्रास्फीति की उच्च दर होती है, जो निवेशकों क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? द्वारा प्राप्त प्रतिफल की वास्तविक दरों को विकसित देशों की स्थापित मुद्राओं की तुलना में कम कर देती है। निवेशक ऐसी कमज़ोर मुद्रा में जारी किए गए बॉन्ड नहीं खरीदना चाहते। इसलिए, कम विकसित देश विदेशी मुद्राओं में बॉन्ड के माध्यम से उधार लेने के लिए मजबूर हो जाते हैं, जिससे उनकी उधार लागत अधिक महंगी हो जाती है।

उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि भारत सरकार पूंजी जुटाने के लिए अमरीकी डॉलर में बांड जारी करती है। यदि बॉन्ड के ब्याज दर 5% है, लेकिन बांड की परिपक्वता के समय, भारतीय रुप्या, डॉलर की तुलना में 10% तक मूल्यह्रास करता है, फिर, वास्तविक ब्याज दर भारत सरकार के 15% हो जाता है, और मूलधन का डॉलर में मूल्य भी 10% और अधिक हो जाता है। इस प्रकार विश्व अर्थव्यवस्था में भारी असमानता के कारण कुछ ही विकसित देशों की वित्तीय संस्थाएं अन्य तमाम विकासशील गरीब देशों की सरकारों के बॉन्ड खरीदकर मुनाफ़ा कमाते हैं और यह गरीब देश अच्छे विकास नहीं कर पाते।

विश्व पर अमरीका का वर्चस्व

विश्व अर्थव्यवस्था में सबसे अधिक शक्तिशाली मुद्रा अमरीकी डॉलर है। इसलिए विश्व के, न केवल अधिकतर संप्रभु बॉन्ड अमरीकी डॉलर में जारी किए जाते हैं बल्कि विश्व के तमाम देश, अपनी वित्तीय संपत्ति बनाने के लिए अमरीकी सरकार द्वारा जारी बॉन्डों को खरीदते हैं क्योंकि वे उसे अपने देशों की मुद्रा से और सुरक्षित मानते हैं। इसका फ़ायदा उठाकर अमरीकी सरकार दुनिया भर में अपनी सेना को तैनात करके रखती है जिसका खर्च इन बॉन्डों को बेचकर आए धन से उठाया जाता है। इससे उसकी सैनिक ताकत के कारण उसे आर्थिक व्यापार में भी बहुत फायदा होता है। जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत इस प्रकार चरितार्थ हो जाती है।

विदेशी मुद्रा में संप्रभु बॉन्ड जारी करने के क्या परिणाम होते हैं?

भारत की बात अगर की जाए तो सरकार बॉन्ड बेचकर जो उधार लेती है, उस विदेशी मुद्रा के बॉन्डों के ऋण को पूरा करने के लिए अधिक रुप्ये भरने पड़ते हैं क्योंकि विदेशी मुद्रा की तुलना में भारतीय रुप्ये लगातार कमजोर होते जाते हैं। इस कारण से देश का, विकास में निवेश करने के लिए, कम धन बचता है।

दूसरी बात यह है कि विदेशी ऋण को अधिकतर ऐसे मदों पर खर्च किया जाता है जिससे अमीर वर्ग को ही फ़ायदा होता है। सार्वजनिक शिक्षा, स्वास्थ्य एवं रोजगार सृजन पर कुल मिलाकर देश की आय का केवल 5 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा है जब कि यह कम से कम 20 प्रतिशत होना चाहिए। इस वजह से भारत की अधिकतर जनता अशिक्षित, अस्वस्थ एवं बेरोजगार है। इस से सीधे सीधे अमीर वर्गों को फायदा होता है क्योंकि उन्हें कम मजदूरी पर श्रमिक मिल जाते हैं और वे आसानी से उनसे अधिक काम ले सकते हैं। इसके अलावा हमारे देश में जो वस्तुएँ आयात की जाती हैं वे अधिकतर अमीर वर्गों के उपभोग के लिए होती हैं। क्योंकि निर्यात से आयात अधिक है इसलिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में घाटा होता है जिसका बोझ देश के गरीब लोगों को उठाना पड़ता है।

हमारे देश क्यों सरकार विदेशी बॉन्ड जारी करती है? की अर्थव्यवस्था में अंतर्राष्ट्रीय पूंजी निवेश के कारण हमारी नीतियों को भी दूसरे देश व अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं प्रभावित कर पाती हैं।

सरकार द्वारा लिये गये उधार को आखिर देश की पूरी जनता को, कर देकर चुकाना पड़ता है। इस प्रकार अमीर वर्ग की अय्याशी देश की असंख्य गरीब जनता के खून पसीना से पूरी हो रही है।

संस्कृत में एक कहावत है – ऋणंग कृत्तंग घृतंग पिबेत यानि उधार करके भी घी पियो। भारत में सरकार द्वारा संप्रभु बॉन्ड जारी कर अमीर वर्गों की अय्याशी को प्रोत्साहित करना इस कहावत को चरितार्थ करता है।

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